मंगलवार, 16 जुलाई 2013

पतझर का मतलब है फिर बसंत आना है

 तूफ़ानी लहरें हों
अम्बर के पहरे हों
पुरवा के दामन पर दाग़ बहुत गहरे हों
सागर के माँझी मत मन को तू हारना
जीवन के क्रम में जो खोया है, पाना है
पतझर का मतलब है फिर बसंत आना है....!
राजवंश रूठे तो
... राजमुकुट टूटे तो
सीतापति-राघव से राजमहल छूटे तो
आशा मत हार, पार सागर के एक बार
पत्थर में प्राण फूँक, सेतु फिर बनाना है
पतझर का मतलब है फिर बसंत आना है.....!
घर भर चाहे छोड़े
सूरज भी मुँह मोड़े
विदुर रहे मौन, छिने राज्य, स्वर्ण.रथ, घोड़े
माँ का बस प्यार, सार गीता का साथ रहे
पंचतत्व सौ पर है भारी, बतलाना है
जीवन का राजसूय यज्ञ फिर कराना है
पतझर का मतलब है, फिर बसंत आना है......!

एक चेहरा था ,दो आखेँ थीं

एक चेहरा था ,दो आखेँ थीं ,हम भूल पुरानी कर बैठे ,
इक किस्सा जी कर खुद को ही, हम एक कहानी कर बैठे...!
हम तो अल्हड-अलबेले थे ,खुद जैसे निपट अकेले थे ,
मन नहीं रमा तो नहीं रमा ,जग में कितने ही मेले थे ,
पर जिस दिन प्यास बंधी तट पर ,पनघट इस घट में अटक गया ,
एक इंगित ने ऐसा मोड़ा,जीवन का रथ पथ भटक गया ,
जिस "पागलपन" को करने में ,ज्ञानी-ध्यानी घबराते है ,
... वो पागलपन जी कर खुद को ,हम ज्ञानी-ध्यानी कर बैठे...!
एक चेहरा था ,दो आखें थीं ,हम भूल पुरानी कर बैठे ,
इक किस्सा जी कर खुद को ही, हम एक कहानी कर बैठे...!
परिचित-गुरुजन-परिजन रोये,दुनिया ने कितना समझाया
पर रोग खुदाई था अपना ,कोई उपचार न चल पाया ,
एक नाम हुआ सारी दुनिया ,काबा-काशी एक गली हुई,
ये शेरो-सुखन ये वाह-वाह , आहें हैं तब की पली हुई ,
वो प्यास जगी अन्तरमन में ,एक घूंट तृप्ति को तरस गए ,
अब यही प्यास दे कर जग को ,हम पानी-पानी कर बैठे....!
एक चेहरा था ,दो आखें थीं ,हम भूल पुरानी कर बैठे ,
इक किस्सा जी कर खुद को ही, हम एक कहानी कर बैठे...!
क्या मिला और क्या छूट गया , ये गुना-भाग हम क्या जाने ,
हम खुद में जल कर निखरे हैं ,कुछ और आग हम क्या जाने ,
सांसों का मोल नहीं होता ,कोई क्या हम को लौटाए ?
जो सीस काट कर हाथ धरे , वो साथ हमारे आ जाए ,
कहते हैं लोग हमें "पागल" ,कहते हैं नादानी की है ,
हैं सफल "सयाना" जो जग में , ऐसी नादानी कर बैठे........!
एक चेहरा था ,दो आखें थीं ,हम भूल पुरानी कर बैठे ,
इक किस्सा जी कर खुद को ही, हम एक कहानी कर बैठे...!