मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

ज़िन्दगी है छोटी , हर पल में खुश रहो ....

ज़िन्दगी है छोटी , हर पल में खुश रहो..
Office में खुश रहो, घर में खुश रहो ..
 आज पनीर नहीं है , दाल में ही खुश रहो ,

आज  जिम जाने का समय नहीं , दो कदम चल के ही खुश रहो ..
आज दोस्तों का साथ नहीं , TV देख के ही खुश रहो ..
घर जा  नहीं सकते तो फ़ोन कर के ही खुश रहो ..
आज कोई नाराज़ है , उसके इस अंदाज़ में भी खुश रहो ..
जिससे देख नहीं सकते उसकी आवाज़ में ही खुश रहो ..
जिससे पा नहीं सकते उसकी याद में ही खुश रहो ..

MBA करने का सोचा था , S/W में ही खुश रहो ..
Laptop ना मिला तो क्या , Desktop में ही खुश रहो ..
बीता हुआ कल जा चुका है , उसमे मीठी यादें है ,उनमे ही खुश रहो ..
आने वाले पल का पता नहीं ..सपनो में ही खुश रहो ..
हस्ते-हस्ते ये पल बिताएंगे , आज में ही खुश रहो ..

ज़िन्दगी है छोटी , हर पल में खुश रहो ....

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

नवम नवरात्र (माता सिद्धिदात्री)

माँ दुर्गा की नवी शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है. ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली है. मर्कंदेयापुरण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ सिद्धियाँ होती है. ब्रह्म्वैवार्त्पुरण के श्रीकृष्ण-जमन खंड में यह संख्या अट्ठारह बताई गयी है. इनके नाम इस प्रकार है...
1 . अणिमा, 2 . लघिमा, 3 . प्राप्ति, 4 . प्रकाम्य, 5 . महिमा, 6 . ईशित्व, वशित्व, 7 . सर्वकामावसायिता, 8 . सर्वज्ञत्व, 9 . दूर्स्रावन, 10 . परकाय्प्रवेशन, 11 . वाक्सिद्धि, 12 . कल्पवृक्षत्व, 13 . सृष्टि, 14 . संहारकरणसामर्थ्य , 15 . अमरत्व, 16 . सर्वन्यायकत्व, 17 . भावना, 18 . सिद्धि.
माँ सिद्धिदात्री भक्तों और साधकों को ये सभी सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ है. देवीपुराण के अनुसार भगवान शिव ने इनकी कृपा से ही सिद्धियों को प्राप्त किया था. इनकी अनुकम्पा से ही भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था. इसी कारण वह लोक में 'अर्धनारीश्वर' के नाम से प्रसिद्ध हुए. माँ सिद्धिदात्री चार भुजा वाली है. इनका वाहन सिंह है. ये कमल के पुष्प पर भी आसीन होती है. इनकी दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प है. नवरात्र पूजन के नवे दिन इनकी उपासना की जाती है. इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठां के साथ साधना करने से साधक में ब्रह्माण्ड पर पूर्ण विजय की सामर्थ्य आ जाती है.
प्रत्येक मनुष्य का यह कर्त्तव्य है की वह माँ सिद्धिदात्री की कृपा प्राप्त करने का निरंतर प्रयत्न करे. उनकी आराधना की ओर अग्रसर हो. इनकी कृपा से अनंत दुःख रूप संसार से निर्लिप्त रहकर सरे सुखों का भोग करता हुआ वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है. नव दुर्गों में सिद्धिदात्री अंतिम हैं. अन्य आठ दुर्गों की पूजा-उपासना शास्त्रीय विधि-विधान आवश्यकतानुसार करते हुए भक्त दुर्गा पूजा के नवे दिन इनके उपासना में प्रवृत्त होते है.



इन सिद्धिदात्री माँ की उपासना पूर्ण कर लेने के बाद भक्तो और साधको की लौकिक-परलौकिक सभी प्रकार की कामनाओ की पूर्ती हो जाती है. सिद्धिदात्री माँ के कृपा पत्र भक्त के भीतर कोई ऐसी कामना शेष बचाती ही नहीं है जिसे वह पूर्ण करना चाहे. वह सभी सांसारिक इच्छाओं, आवाश्यकताओं और स्प्रिहओं से ऊपर उठाकर मानसिक रूप में माँ भगवती के दिव्या लोकों में विचरण करता हुआ उनके कृपा-रस-पियूष का निरंतर पान करता है. इस परम पड़ को पाने के बाद उसे अन्य किसी भी वास्तु की आवश्यकता नहीं रह जाती है.
माँ के चरणों का यह सानिध्य प्राप्त करने के लिए हमें निरंतर नियमनिष्ठ रहकर उनकी उपासना करनी चाहिए. माँ भगवती का स्मरण, ध्यान, पूजन हमें इस संसार की असारता का बोध करते हुए वास्तविक परम्शाक्तिदायक अमृत पद की ओर ले जाने वाला है.

...जय माता की...

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

अष्टम नवरात्र (माता महागौरी)

माँ दुर्गा जी की आठवी शक्ति का नाम महागौरी है. इनका वर्ण पूर्णतः गौर है. इस गौरता की उपमा शाखाद, चन्द्र और कुंद के फूल से दी गयी है. इनकी आयु आठ वर्ष मानी गयी है. 'अष्टवर्षा भवेद गौरी'. इनके समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि भी स्वेत है. इनकी चार भुजाएं है. इनका वाहन वृषभ है. इनके ऊपर के दाहिने हाथ में अभय-मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है. ऊपर वाले बाएं हाथ में डमरू तथा नीचे के बाये हाथ में वर मुद्रा है. इनकी मुद्रा अत्यंत शांत है. अपने पारवती रूप में इन्होने भगवन शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए बड़ी कठोर तपस्या की थी. इनकी प्रतिज्ञा थी की 'वृयेहम वरदाम शम्भुम देवं महेश्वारत' (नारद-पश्चारात्र) गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार भी इन्होने भगवान शिव के वरन के लिए कठोर संकल्प लिया था.
जन्म कोटि लगि रगर हमारी.
वरऊं संभु न ता रहऊं कुआरी..
इस कठोर तपस्या के सरन इनका शारीर एकदम कला पड़ गया. इनकी तपस्या से प्रसन्न और संतुस्ट होकर जब भगवान शंकर ने इनके शारीर को गंगा जी के पवित्र जल से मलकर धोया तब वह विद्युत् प्रभा के सामान अत्यंत कान्तिमान गौर हो उठा. तभी से इनका नाम महागौरी पड़ा. दुर्गा पूजा के आठवे दिन महागौरी की उपासना का विधान है. इनकी शक्ति अमोघ और सद्य फलदायिनी है. इनकी उपासना से भक्तों के सभी कलमघ धुल जाते है. उसके पूर्व संचित पाप भी विनष्ट हो जाते है. भविष्य में पाप-संताप, दैन्य-दुःख उसके पास कभी नहीं आते. वह सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यो का अधिकारी हो जाता है.  माँ महागौरी का ध्यान-स्मरण, पूजा-आराधना भक्तो के लिए सर्वविधि कल्याणकारी है. हमें सदैव इनका ध्यान करना चाहिए. इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है. मन को अनन्य भाव से एकनिष्ठ कर मनुष्य को सदैव इनके ही पदारविन्दों का ध्यान करना चाहिए. ये भक्तो का कष्ट अवश्य ही दूर करती है. इनकी उपासना से आर्तजनों के असंभव कार्य भी संभव हो जाते है. अतः इनके चरणों की शरण पाने के लिए हमें सर्वविधि प्रयत्न करने चाहिए. पुराणों में इनकी महिमा का प्रचुर आख्यान किया गया है. ये मनुष्य की वृत्तियों को सत की ओर प्रेरित करके असत का विनाश करती है. हमें प्राप्ति भाव से सदैव इनका शरणागत बनना चाहिए.

...जय माता की...

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

सप्तम नवरात्र (माता कालरात्रि)

माँ दुर्गा की सातवी शक्ति कालरात्रि के नाम से जनि जाती है. इनके शरीर का रंग घनिं अन्धकार की तरह एकदम कला है. सिर के बाल बिखरे हुए है. गले में विद्युत् की तरह चमकाने वाली माला है. इनके तीन नेत्र है. ये तीनो नेत्र ब्रह्माण्ड के सदृश गोल है. इनमे से विद्युत् के सामान चमकीली किरणे निःसृत होती रहती है. इनकी नासिका के शवक प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती है. इनका वाहन गंदर्भ-(गधा) है. ऊपर उठे हुए दाहिनी हाथ की वर मुद्रा से सब ही को वर प्रदान करती है. दाहिनी तरफ नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है. बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग(कटार) है.
माँ कालरात्रि का स्वरुप देखने में अत्यंत भयानक है. लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली है.इसी कारण इनका नाम 'शुभकारी' भी है. अतः इनसे भक्तों को किसी प्रकार भयभीत अथवा आतंकित होने किओ आवश्यकता नहीं है. दुर्गा पूजा के सातवे दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है. इस दिन साधक का मन सहस्त्रार चक्र में स्थित रहता हिया. उसके लिए ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है. इस चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः माँ कालरात्रि के स्वरुप में अवस्थित रहता है. उनके साक्षात्कार से मिलने वाले पुण्य का वह भागी हो जाता है. उसके समस्त पापों-विघ्नों का नाश हो जाता है. उसे अक्षां पुण्य की प्राप्ति होती है. माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली है. दानव, दैत्य राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके स्मरण मात्र से ही भयभीत होकर भाग जाते है. ये गृह-बाधाओं को भी दूर करने वाली है. इनके उपासक को अग्नि-भय, जल-भय, जन्तु-भय, शत्रु-भय, रात्री-भय आदि कभी नहीं होते. इनकी कृपा से वह सर्वथा भय मुक्त हो जाता है. माँ कालरात्रि के स्वरुप विग्रह को अपने ह्रदय में अवस्थित करके मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उनकी उपासना करनी चाहिए.
यम, नियम, संयम का उसे पूर्ण पालन करना चाहिए. मन, वचन, काया की पवित्रता रखनी चाहिए. यह शुभकारी देवी है. उनकी उपासना से होने वाले शुभाको की गणना नहीं की जा सकती है. हमें निरंतर उनका स्मरण, ध्यान और पूजन करना चाहिए.

...जय माता की...

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

षष्टम नवरात्र (माता कात्यायनी)

माँ दुर्गा के छठवें स्वरुप का नाम कात्यायनी है. इनका कात्यायनी नाम पड़ने की कथा इस प्रकार है- कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे. उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए. इन्ही के गोत्र से विश्व प्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए थे. इन्होने भगवती पराम्बा की उपासना करते हुए बहुत वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की थी. उनकी इच्छा थी की माँ भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म ले. माँ भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली थी.
कुछ काल पश्चात् जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बहुत बाद गया तब भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनो ने अपने-अपने तेज़ का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन्न किया. महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की. इसी कारण से यह कात्यायनी कहलाई. ऐसी भी कथा मिलती है की ये महर्षि कात्यायन के यहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न हुयी थी. आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तीन दिन तक इन्होने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था. माँ कात्यायनी अमोघ फल्दयानी है. भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए गोपियों ने इन्ही की पूजा कालिंदी यमुना के तट पर की थी. ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित है. इनका स्वरुप अत्यंत ही भव्य और दिव्या है. इनका वर्ण स्वर्ण के सामान चमकीला और भास्वर है. इनकी चार भुजाएं हैं. माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रा में है तथा नीचे वाला वरमुद्रा में है. बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है. इनका वाहन सिंह है.
दुर्गा पूजा के छठवे दिन इनके स्वरुप के उपासना की जाती है. उस दिन साधक का मन 'आज्ञा' चक्र में स्थित होता है. योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है. इस चक्र में स्थित मानवाला साधक माँ कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व निवेदित कर देता है. परिपूर्ण आत्मदान करने वाले ऐसे भक्त को सहज भाव से माँ कात्यायनी के दर्शन प्राप्त हो जाते है. माँ कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारो फलों की प्राप्ति हो जाती है. वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है. उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनिष्ट हो जाते है. जन्म जन्मान्तर के पापों को विनिष्ट करने के लिए माँ की उपासना से अधिक सुगम और सरल मार्ग दूसरा नहीं है. इनका उपासक निरंतर इनके सानिध्य में रहकर परमपद का अधिकारी बाण जाता है. अतः हमें सर्वतोभावेन माँ के शरणागत होकर उनकी पूजा उपासना के लिए तत्पर रहना चाहिए.

...जय माता की...

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

पंचम नवरात्र (माता स्कंदमाता)

माँ दुर्गा के पांचवे स्वरुप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है. भगवान स्कन्द कुमार कार्तिकेय नाम से भी जाने जाते है. ये प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे. पुराणों में इन्हें कुमार और शक्तिधर कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है. इनका वाहन मयूर है. अतः इन्हें मयूर्वन के नाम से भी अभिहित किया गया है. इन्ही भगवान स्कन्द की माता होने के कारण माँ दुर्गा के इस पांचवे स्वरुप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है. इनकी उपासना नवरात्रि पूजा के पांचवे दिन कि जाती है. इस दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थित होता है. इनके विग्रह में भगवन स्कन्द जी बाल रूप में इनकी गोद में बैठे होते है.
स्कान्दामात्रिस्वरूपिनी देवी कि चार भुजाएं है. ऊपर वाली भुजाओं में कमल पुष्प है. बायीं तरफ कि नीचे वाली भुजा वरमुद्रा में है. इनका वर्ण पूर्णतः शुभ है. ये कमल के आसन पर विराजमान रहती है.  इसी कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है. सिंह भी इनका वाहन है. नवरात्र-पूजन के पांचवे दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्त्व बताया गया है. इस चक्र में अवस्थित मनवाले साधक कि समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है. वह विशुद्ध बन्धनों से विमुक्त होकर पद्मासना माँ स्कंदमा के स्वरुप में पूर्णतः तल्लीन होता है. इस समय ध्यान-वृत्तियों को एकाग्र रखते हुए साधना के पथ पर आगे बढ़ाना चाहिए. माँ स्कंदमाता की  उपासना से  भक्त की समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती है. इस मृत्युलोक में ही उसे परम शांति और सुख का अनुभव होने लगता है. उसके लिए मोक्ष का द्वार स्वयमेव सुलभ हो जाता है. स्कंदमाता की उपासना से बालरूप स्कन्द भगवान् कि उपसना भी स्वयमेव ही हो जाती है यह विशेषता केवल इन्ही को प्राप्त है, अतः साधक को स्कंदमाता कि उपासना की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए. सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज़ एवं कान्ति से संपन्न हो जाता है. एक अलौकिक प्रभामंडल अदृश्य भाव से सदैव उसके चतुर्दिक परिव्यत रहता है. यह प्रभामंडल प्रितिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता रहता है.
अतः हमें एकाग्रभाव से मन को पवित्र रखकर माँ की शरण में आने का प्रयत्न करना चाहिए. इस घोर भवसागर से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ बनाने का इससे उत्तम उपाय दूसरा नहीं है.

...जय माता की...

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

चतुर्थ नवरात्र (माता कूष्मांडा)

माँ दुर्गा जी के चौथे स्वरुप का नाम कूष्मांडा है. अपनी मंद, हलकी हंसी द्वारा अंड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से अभिहित किया गया है. जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था. चारो ओर अन्धकार परिव्याप्त था तब इन्ही देवी ने अपने (ईषत) हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी. अतः यही सृष्टि की आदि-स्वरूप, आदि-शक्ति है. इनके पूर्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व नहीं था.
इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है. सूर्यलोक में निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति इन्ही में है. इनका शरीर की कांति और प्रभाव भी सूर्य के सामान ही देदीप्यमान और भास्वर है.  इनके तेज की तुलना इन्ही से की जा सकती है.  अन्य कोई भी देवी देवता इनके तेज़ और प्रभाव की समता नहीं कर सकते. इनकी आठ भुजाये हैं, अतः ये अष्टभुजी देवी के नाम से भी विख्यात है. इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डलु, धनुष बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है. आठवे हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है. इनका वाहन सर्वाधिक प्रिय है. इस कारण से भी ये कूष्मांडा कही जाती है.
नवरात्र पूजन के चौथे दिन कूष्मांडा देवी के स्वरुप की ही उपासना की जाती है. इस दिन साधक का मन (अनाहत) चक्र में अवस्थित रहता है. अतः इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और उज्जवल मन से कूष्मांडा देवी के स्वरुप को ध्यान में रखकर पूजा-उपासना के कार्य में लगाना चाहिए. माँ कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक विनष्ट हो जाते है. इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है. माँ कूष्मांडा अत्यल्प सेवा और भक्ति से भी प्रसन्न होने वाली है. यदि मनुष्य   सच्चे ह्रदय से इनका शरणागत बाण जाये तो फिर उसे अत्यंत सुगमता से परम पड़ की प्राप्ति होती हो सकती है. हमें चाहिए कि हम शास्त्रों-पुराणों में वर्णित विधि-विधान के अनुसार माँ दुर्गा की उपासना और भक्ति मार्ग पर अहर्निश अग्रसर हो. माँ के भक्ति मार्ग पर कुछ ही कदम आगे बदने पर भक्त साधक को उनकी कृपा का सूक्ष्म अनुभव होने लगता है. यह दीख श्वरूप संसार उसके लिए अत्यंत सुखद और सुगम बाण जाता है. माँ की उपासना मनुष्य को सहज भाव से भवसागर से पर उतारने के लिए सर्वाधिक सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है. माँ कूष्मांडा की उपासना मनुष्य को आधियों-व्याधियों से सर्वथा विमुक्त करके उसे सुख की ओर अग्रसर करता है.
अतः चाहने वालों को इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिए.

...जय माता की...

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

तृतीय नवरात्र (माता चंद्रघंटा)

माँ दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है. नवरात्री-उपासना में तीसरे दिन इन्ही के विग्रह का पूजन-आराधना किया जाता है. इनका यह श्वरूप परम शक्तिदायक और कल्याणकारी है. इनके मस्तक में घंटे के आकर का अर्धचन्द्र है. इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है. इनके शरीर का रंग स्वर्ण के सामान चमकीला है. इनके दस हाथ है. इनके दसो हाथों में खड्ग आदि शास्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित है. इनका वहां सिंह है. इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उद्यत रहने की होती है. इनके घंटे की-सी भयानक चंद्ध्वानी से अत्याचारी दानव-दैत्य-राक्षस सदैव प्रकोपित रहते है.
नवरात्र दुर्गा-उपासना में तीसरे दिन के पूजा का अत्यधिक महत्व है. इस दिन साधक का मन मणिपूर चक्र में प्रविस्ता होता है. माँ चंद्रघंटा की ड्रिप से उसे अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते है. दिव्या सुगंधियों का अनुभव होता है. तथा विविध प्रकार की दिव्या ध्वनिया सुने देती है. ये क्षण साधक के लिए अत्यंत सावधान रहने के होते है. माँ चंद्रघंटा की कृपा से साधक के समस्त पाप और बढ़ाएं विनस्ट हो जाती है. इनकी आराधना सद्यः फलदायी है. इनकी मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती है. अतः भक्तों के कष्ट का निवारण अत्यंत शीघ्र कर देती है. इनका वाहन सिघ है अतः इनका उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है. इनके घंटे की ध्वनि सदा अपने भक्तों की प्रेत-बधादी से रक्षा करती है. इनका ध्यान करते ही शरणागत की रक्षा के लिए इस घंटे की ध्वनि निनादित हो उठती है. दुष्टों का दमन और विनाश करने में सदैव तत्पर रहने के बाद भी इनका श्वरूप दर्शक और आराधक के लिए अत्यंत सौम्यता एवं शांति से परिपूर्ण रहता है. इनकी आराधना से प्राप्त होने वाला एक बहुत बड़ा सद्गुण यह भी है की साधक में वीरता-निर्भयता के साथ सौम्यता एवं विनम्रता का भी विकास होता है. उसके मुख, नेत्र, तथा संपूर्ण काया में काँटी-गुण की वृद्धि होती है. स्वर में दिव्या, अलौकिक माधुर्य का समव्वेश हो जाता है. माँ चंद्रघंटा के भक्त और उपासक जहा भी जाते है लोग उन्हें देखकर शांति और सुख का अनुभव करते है. ऐसे साधक के शरीर से दिव्या प्रकाशयुक्त परमाणुओं का अदृश्य विकिरण होता रहता है. यह दिव्या क्रिया साधारण चक्षुओं दिखाई नहीं देती, किन्तु साधक और उसके संपर्क में आने वाले लोग इस बात का अनुभव भली-भांति करते रहते है.
हमें चाहिए की अपने मन, वचन, कर्म एवं काया को विहित विधि-विधान के अनुसार पूर्णतः परिशुद्ध एवं पवित्र करके माँ चंद्रघंटा के शरणागत होकर उनकी उपासना - आराधना में तत्पर हों. उनकी उपासना से हमें समस्त सांसारिक कष्टों से विमुक्त होकर सहज परमपद के अधिकारी बन सकते है. हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखते हुए साधना की और अग्रसर होने का प्रयत्न करना चाहिए. उनका ध्यान हमारे इसलोक और परलोक दोनों के लिए परम कल्याणकारी और सद्गति को देने वाला है.

.....जय माता की..... 

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

द्वितीय नवरात्र (माता ब्रह्मचारिणी)

 माँ दुर्गा कि नव शक्तियों का दूसरा श्वरूप ब्रह्मचारिणी है. यहाँ ब्रम्ह शब्द का अर्थ तपस्या है. ब्रह्मचारिणी अर्थात ताप की चारिणी-तपका आचरण करने वाली. कहा भी है- वेदस्तत्वं तपो ब्रह्म-वेद, तत्व और ताप 'ब्रह्म' शब्द के अर्थ है. ब्रह्मचारिणी देवी का श्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है. इनके दाहिने हाथ में जप माला एवं बाये हाथ में कमण्डलु रहता है.
अपने पूर्व जन्म में या हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थी. तब नारद के उपदेश से प्रेरित होकर इन्होने भगवान शंकर जी को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए अत्यंत कठिन तपस्या की थी. इसी दुस्कर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी नाम से अभिहित किया गया. एक हज़ार वर्ष उन्होंने केवल फल-फूल खाकर व्यतीत किये थे. सौ वर्षों तक केवल शाक पर निर्वाह किया था. कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखते हुए खुले आकाश के नीचे वर्षा और धुप के भयानक कष्ट सहे. इस कठिन तपस्या के पश्चात् तीन हज़ार वर्षों तक केवल जमीन पर टूटकर गिरे हुए बेलपत्रों को खाकर वह अहर्निश भगवन शंकर की आराधना करती रही. इसके बाद उन्होंने सूखे बेलपत्रों को खाकर वह अहर्निश भगवान शंकर की आराधना करती रही. इसके बाद उन्होंने सूखे बेलपत्रों को भी खाना छोड़ दिया कई हज़ार वर्षों तक वो निर्जल और निराहार तपस्या करती रही. पत्तो को भी खाना छोड़ देने के  कारण उनका एक नाम अपर्णा पड़ गया.
कई हज़ार वर्षों की इस कठिन तपस्या के कारण ब्रह्मचारिणी देवी का पूर्वजन्म का वह शरीर एक दम क्षीण हो उठा. वह अत्यंत कृशकाय हो गयी थी. उनकी यह दशा देखकर माता मैना अत्यंत दुखित हो उठी. उन्होंने उन्हें इस कठिन ताप से विरत करने के लिए आवाज दी 'उ मा', अरे! नहीं! और नहीं! तब से देवी ब्रह्मचारिणी का पूर्व जन्म नाम उमा पड़ गया था. उनकी इस तपस्या से तीनो लोको में हाहाकार मच गया. देवता, ऋषि, सिद्धागन, मुनि सभी ब्रह्मचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूतपूर्व पुन्यकृत्य बताते हुए उनकी सराहना करने लगे. अंत में पितामह ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें संबोधित करते हुए प्रसन्न स्वरों में कहा - हे देवी! आज तक किसी ने ऐसी कठोर तपस्या नहीं की थी.ऐसी तपस्या तुम्ही से संभव थी. तुम्हारे इस अलौकिक कृत्य की चतुर्दिक सराहना हो रही है. तुम्हारी मनोकामना सर्वतोभावेन परिपूर्ण होगी. भगवान चंद्रमौली शिव जी तुम्हे पति के रूप में प्राप्त होंगे, अब तुम तपस्या से विरत होकर घर लौट जाओ. शीघ्र ही तुम्हारे पिता तुम्हे बुलाने आ रहे है. माँ दुर्गा का यह दूसरा स्वरुप भक्तों और सिद्धों को अनंत्फल देने वाला है. इनकी उपासना से मनुष्य में ताप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है. जीवन के कठिन संघर्षों me भी उसका मन कर्त्तव्य पथ से विचलित नहीं होता है. माँ ब्रह्मचारिणी देवी के कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है. दुर्गा पूजा के दुसरे दिन इन्ही के स्वरुप की उपासना की जाती है. इस दिन साधक का मन 'स्वधिस्थान ' चक्र में स्थित होता है. इस चक्र में स्थित मानवाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है..

......जय माता की...... 

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

प्रथम नवरात्र (माता शैलपुत्री)


माँ दुर्गा अपने पहले स्वरुप में शैलपुत्री के नाम से जानी जाती है. पर्वतराज हिमालय के यहाँ पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका यह नाम पड़ा. वृषभ स्थित इन माताजी के दाहिनी हाथ में त्रिशूल और बाये हाथ में कमल-पुष्प शुशोभित है. यही नवदुर्गा  रूपों में प्रथम दुर्गा है. अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष कि कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थी. तब इनका नाम सती था. इनका विवाह भगवान शंकर जी से हुआ था. एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया. इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया. जब सती ने सुना कि हमारे पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे है, तब वहा जाने के लिए उनका मन विकल हो पड़ा. अनपी यह इच्छा उन्होंने शंकर जी को बताई. सर्री बाते विचार करने के बाद शंकर जी ने कहा प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट है. अपने यज्ञ में उन्होंने सरे देवताओं को निमंत्रित किया है, उनके यज्ञ भाग उन्हें समर्पित किये है , किन्तु हमें जानबूझकर नहीं बुलाया है. कोई सूचना तक नहीं भेजी है. ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी प्रकार श्रेयस्कर नहीं होगा. शंकर जी के इस उपदेश से सती को प्रबोध नहीं हुआ. पिता का यज्ञ देखने, वहां जाकर माता और बहनों से मिलने कि उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी. उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकर जी ने उन्हें वहां जाने कि अनुमति दे दी.

सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम से बातचीत नहीं कर रहा है. सारे लोग मुह फेरे हुए है. किवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया. बहनों कि बैटन में व्यंग और उपहास के भाव भरे हुए थे. परिजनों  के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुंचा. उन्होंने यह भी देखा कि वहा चतुर्दिक भगवन शंकर जी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है. दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमान जनक वचन भी कहे . यह सब देखकर सती का ह्रदय क्षोभ , ग्लानी और क्रोध से संतप्त हो उठा. उन्होंने सोचा भगवान शंकर जी कि बात न मान यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती  कि है. वह अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकी उन्होंने उसी क्षण वाही योगाग्नि द्वारा अपने उस रूप को जलाकर भस्म कर दिया. वज्रपात के सामान इस दारुण-दुखद घटना को सुनकर शंकर जी क्रुद्ध हो उठे उन्होंने अपने गानों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंश करा दिया. सही ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय कि पुत्री के रूप में जन्म लिया. इस बार वह शैलपुत्री नाम से विख्यात हुई. पारवती, हेमवती भी उन्ही के नाम है. उपनिषद कि एक कथा के अनुसार उन्होंने ही हेमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था. शैलपुत्री देवी का विवाह शंकर जी से ही हुआ. पूर्वजन्म कि भांति इस जन्म में भी वह शिव जी कि अर्धांगिनी बनी. नव दुर्गा रूपोंन में प्रथम शैलपुत्री का महत्व और शक्तियां अनंत है. नवरात्र पूजन में प्रथम दिवस इन्ही कि पूजा और उपासना कि जाती है. इस प्रथम दिन कि उपासना में योगी अपने मक को मूलधार चक्र स्थित करते है. यही से उनकी योग साधना का प्रारंभ होता है...


जय माता की.

दोस्ती




दोस्ती तो सिर्फ एक इत्तेफाक है,
ये तो दिलों कि मुलाक़ात है,
दोस्ती नहीं देखती कि ये दिन है कि रात है,
इसमें तो सिर्फ वफादारी और जज्बात है.




दोस्त एक साहिल है तुफानो के लिए,
दोस्त एक आइना है अरमानो के लिए,
दोस्त एक महफ़िल है अंजानो के लिए,
दोस्ती एक क्वाहिश है अच्छा दोस्त पाने के लिए,


राते गुमनाम होती है
दिन किसी के नाम होता है,
हम ज़िन्दगी कुछ इस तरह जीते है
कि हर लम्हा दोस्तों के नाम होता है....

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

SWEET POEM

...........THIS POEM IS ALL DEDICATED TO WHO IS READING IT..........
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Wish you luck wish you joy;
may you have a baby boy.
When his hair starts to curl;
may you have a baby girl.
When she start wearing pins;
may you have a pair of twins.
When your twins turn to four;
may you have a baby more.
and if you go with this scheme;
 YOU WILL HAVE A FOOTBALL TEAM.

   HAHAHAHA   

JUST JOKING DEAR

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

ना तुम जानो न हम........

क्यों चलती है पवन ? Becoz of Evaporation .

क्यों घूमे है गगन ? Becoz of Earth Rotation.

क्यों मचलता है मन ? Becoz of Disorder in Digestion.

क्यों गुम है हर दिशा ? Becoz of Poor sense of Direction.

क्यों होता है नासा ? Becoz of Drug Addiction.

क्यों आती है बहार ? Becoz of Change in Season.

क्यों होता है करार ? Becoz of Taking Tension.

क्यों होता है प्यार ? Becoz of Opposite Attraction.

I explained you all, अब ये मत कहना
ना तुम जानो न हम