अपने मन की उड़ानों से, आसमान छूने को जी करता है।
पर उन्ही ऊँचाइयों को सोच कर, जाने क्यों ये दिल डरता है।
हर पल दिखते अंधियारे से, मन बहुत घबराता है।
क्या पाना है और क्या खोना, बस यही सोचता रह जाता है।
अपने अन्दर डूब के मैं, खुद को खुद में ढूँढता हूँ।
ढून्ढ नही पाता फिर भी, जाने क्यू यू टूटता हूँ।
खो रहा हूँ जाने कही, इस जिंदगी की राहों में।
अपने वो हसने की आदत, जाने क्यू मैं भूलता हूँ।
जीवन मेरा सीधा सा, क्यों चिंता में यू बीत रहा।
घर की उल्झन मन की उल्झन, दम क्यू मेरा घुट रहा।
जीवन की हर उलझन से मैं, मुक्ति पाना चाहता हूँ।
एक बार जी खोल के मैं, खिलखिलाना चाहता हूँ.....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें