बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

षष्टम नवरात्र (माता कात्यायनी)

माँ दुर्गा के छठवें स्वरुप का नाम कात्यायनी है. इनका कात्यायनी नाम पड़ने की कथा इस प्रकार है- कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे. उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए. इन्ही के गोत्र से विश्व प्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए थे. इन्होने भगवती पराम्बा की उपासना करते हुए बहुत वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की थी. उनकी इच्छा थी की माँ भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म ले. माँ भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली थी.
कुछ काल पश्चात् जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बहुत बाद गया तब भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनो ने अपने-अपने तेज़ का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन्न किया. महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की. इसी कारण से यह कात्यायनी कहलाई. ऐसी भी कथा मिलती है की ये महर्षि कात्यायन के यहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न हुयी थी. आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तीन दिन तक इन्होने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था. माँ कात्यायनी अमोघ फल्दयानी है. भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए गोपियों ने इन्ही की पूजा कालिंदी यमुना के तट पर की थी. ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित है. इनका स्वरुप अत्यंत ही भव्य और दिव्या है. इनका वर्ण स्वर्ण के सामान चमकीला और भास्वर है. इनकी चार भुजाएं हैं. माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रा में है तथा नीचे वाला वरमुद्रा में है. बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है. इनका वाहन सिंह है.
दुर्गा पूजा के छठवे दिन इनके स्वरुप के उपासना की जाती है. उस दिन साधक का मन 'आज्ञा' चक्र में स्थित होता है. योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है. इस चक्र में स्थित मानवाला साधक माँ कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व निवेदित कर देता है. परिपूर्ण आत्मदान करने वाले ऐसे भक्त को सहज भाव से माँ कात्यायनी के दर्शन प्राप्त हो जाते है. माँ कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारो फलों की प्राप्ति हो जाती है. वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है. उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनिष्ट हो जाते है. जन्म जन्मान्तर के पापों को विनिष्ट करने के लिए माँ की उपासना से अधिक सुगम और सरल मार्ग दूसरा नहीं है. इनका उपासक निरंतर इनके सानिध्य में रहकर परमपद का अधिकारी बाण जाता है. अतः हमें सर्वतोभावेन माँ के शरणागत होकर उनकी पूजा उपासना के लिए तत्पर रहना चाहिए.

...जय माता की...

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