शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

प्रथम नवरात्र (माता शैलपुत्री)


माँ दुर्गा अपने पहले स्वरुप में शैलपुत्री के नाम से जानी जाती है. पर्वतराज हिमालय के यहाँ पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका यह नाम पड़ा. वृषभ स्थित इन माताजी के दाहिनी हाथ में त्रिशूल और बाये हाथ में कमल-पुष्प शुशोभित है. यही नवदुर्गा  रूपों में प्रथम दुर्गा है. अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष कि कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थी. तब इनका नाम सती था. इनका विवाह भगवान शंकर जी से हुआ था. एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया. इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया. जब सती ने सुना कि हमारे पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे है, तब वहा जाने के लिए उनका मन विकल हो पड़ा. अनपी यह इच्छा उन्होंने शंकर जी को बताई. सर्री बाते विचार करने के बाद शंकर जी ने कहा प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट है. अपने यज्ञ में उन्होंने सरे देवताओं को निमंत्रित किया है, उनके यज्ञ भाग उन्हें समर्पित किये है , किन्तु हमें जानबूझकर नहीं बुलाया है. कोई सूचना तक नहीं भेजी है. ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी प्रकार श्रेयस्कर नहीं होगा. शंकर जी के इस उपदेश से सती को प्रबोध नहीं हुआ. पिता का यज्ञ देखने, वहां जाकर माता और बहनों से मिलने कि उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी. उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकर जी ने उन्हें वहां जाने कि अनुमति दे दी.

सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम से बातचीत नहीं कर रहा है. सारे लोग मुह फेरे हुए है. किवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया. बहनों कि बैटन में व्यंग और उपहास के भाव भरे हुए थे. परिजनों  के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुंचा. उन्होंने यह भी देखा कि वहा चतुर्दिक भगवन शंकर जी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है. दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमान जनक वचन भी कहे . यह सब देखकर सती का ह्रदय क्षोभ , ग्लानी और क्रोध से संतप्त हो उठा. उन्होंने सोचा भगवान शंकर जी कि बात न मान यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती  कि है. वह अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकी उन्होंने उसी क्षण वाही योगाग्नि द्वारा अपने उस रूप को जलाकर भस्म कर दिया. वज्रपात के सामान इस दारुण-दुखद घटना को सुनकर शंकर जी क्रुद्ध हो उठे उन्होंने अपने गानों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंश करा दिया. सही ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय कि पुत्री के रूप में जन्म लिया. इस बार वह शैलपुत्री नाम से विख्यात हुई. पारवती, हेमवती भी उन्ही के नाम है. उपनिषद कि एक कथा के अनुसार उन्होंने ही हेमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था. शैलपुत्री देवी का विवाह शंकर जी से ही हुआ. पूर्वजन्म कि भांति इस जन्म में भी वह शिव जी कि अर्धांगिनी बनी. नव दुर्गा रूपोंन में प्रथम शैलपुत्री का महत्व और शक्तियां अनंत है. नवरात्र पूजन में प्रथम दिवस इन्ही कि पूजा और उपासना कि जाती है. इस प्रथम दिन कि उपासना में योगी अपने मक को मूलधार चक्र स्थित करते है. यही से उनकी योग साधना का प्रारंभ होता है...


जय माता की.

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